कार्यकर्त्ता उर्फ़ मुंहबोले गाँधी की व्यथा
“पार्टी वार्टी
से हमको क्या लेना देना बाउजी । हम ठहरे कार्यकर्त्ता लोग, माहौल बनाते हैं । सीजन
सीजन कर लेते हैं जिंदाबाद मुर्दाबाद । घर में मेरे दो ग्रेजुएट भाई भी खाली बैठे
हैं । कहीं कोई काम नहीं है । ‘घर घर बैठे बेरोजगार मिलेंगे ; एक ढूँढो
कार्यकर्त्ता हजार मिलेगे’ । एक तो ये दो पार्टी का खेल बेकार है । पांच सात पार्टी
हों तो कार्यकर्त्तागिरी का काम निकले जरा । वो तो अच्छा है कि दीवाली का सीजन भी
लग के आ रहा है । घर घर रंगाई पुताई का काम भी निकल सकता है ।“ वह बोला ।
“पिछली बार
किसके यहाँ कार्यकर्त्ता बने थे ?”
“मैं तो
रंगा भिया के यहाँ लग गया था । भाई लोग बिल्ला भिया के कार्यकर्त्ता थे । दोनों ही
पसंद नहीं थे पर दोनों का जिंदाबाद करते थे । वैसे किसीके जिंदाबाद कहने से कोई
जिंदाबाद हो सकता है क्या । “
“नाम क्या
है तुम्हारा ?”
“वैसे नाम
में क्या रखा है बाउजी । ... माँ बाप ने मोहनदास रखा था । लोग मजाक में गाँधी
बोलने लगे तो वोई नाम पड़ गया । मज़बूरी का
नाम है बाउजी । शुरू शुरू में अच्छा लगता था पर अब डर लगता है ।“ उसने आसपास नजर
डाली और पता नहीं किसको देखा ।
“अरे !
इसमें डरने की क्या बात है !?”
“आजकल लोगों
का भरोसा नहीं है । कहाँ का गुस्सा कहाँ निकाल दें । गरीब आदमी तो हमेशा निशाने पर
होता है । “
“इतना मत
डरो यार, तुम गाँधीजी नहीं हो, सिर्फ गाँधी हो वो भी मुंहबोले ... अच्छा ये बताओ
पुताई कैसे करते हो ... मतलब ठेके से या रोजनदारी से ?”
“माकन
मालिक भरोसे के होते हैं पुताई के मामले में । मतलब घर-मकान वाले ठिये पाए वाले
होते हैं । कहीं भाग जाने वाले तो होते नहीं इसलिए ठेके से काम करना पुरता है ।
मैं तो ठेका ही लेता हूँ पुताई का ।“
“तो
कार्यकर्त्ता भी ठेके में ही बनते होगे ?”
“नहीं
बाउजी । आजकल पोल्टिक्स में किसी का भरोसा नहीं । कुर्सी वाले कब सड़क पे आ जाएँ
क्या पता । ठेका ले लिया और जनता ने नेता को कचरा गाड़ी में डाल दिया तो समझो मजूरी
गुल । फिर कोई नहीं देता । “
“फिर तो
तुम पुताई ही करोगे ।“
“पुताई ही
करते, पर बाउजी महंगाई इतनी है कि इस बार लोग पुताई निकाल ही नहीं रहे हैं । लगता
है कार्यकर्त्ता ही बनना पड़ेगा ।“
“तो फिर लग
लो किसी के साथ । देर किस बात की है ।“
“इधर भी
कम्पेटीशन तगड़ी है बाउजी । आजकल पार्टी वाले लेडीज को भी बुलाने लगे हैं । वो तो
अच्छा है कि सिर्फ मूं चलाने वालों से उनका काम नहीं चलता है, हाथ पैर चलाने वाले
भी होना उनको । कभी सामने वाली पार्टी से अड़ीबाजी हो जाए तो लात घूंसे चला ले,
भागे नहीं ।“
“ऐसा होता
है क्या ?! सुना नहीं इधर ।“
“होता है
बाउजी, पिछली बार हाथापाई हो गयी थी जमके । खूब ले दे हुई । सामने वाली पार्टी में
मेरा भाई था कार्यकर्त्ता । मजबूरन उसे भी पीटना पड़ा ।“
“अरे पागल
है क्या ! अपने भाई को क्यों पिटा तूने ! लोगों ने क्या बोला होगा ।“
“मैंने
अकेले ने थोड़ी पीटा । कईयों के भाई सामने वाली पार्टी में थे, सबने पीटा । भाई है
तो घर में है । धन्धे में कायका भाई वाई । सामने वालों का मुलाहिजा करेंगे तो शाम
को पैसे कौन देगा । बेरोजगारी बड़ी बुरी चीज होती है बाउजी । सब करना पड़ता है । और
फिर आदत है हमको सुनने सुनाने और हाथापाई की ... बस एक ही बात है, माँ को बुरा
लगता है । क्या करो ! उसको आज की राजनीति का कुछ पता नहीं है ना । “
“अब इसमे
कैसी राजनीति है रे भाई गाँधी ?”
“वो क्या
है बाउजी लड़ते ऊपर वाले हैं लेकिन पिटते तो मोहरे ही हैं । मोहरें बुरा मान लेंगीं
तो खेल कैसे होगा !?“
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