मामा एक, चंदामामा अनेक


 


“तुम्हारे यहाँ भी आ गए क्या  ?”  डाक्टर के वेटिंग रूम में बैठे बावरिया सेठ ने लक्ष्मीनारायण जी से पूछा ।

“आए तो नहीं अब तक । लेकिन किसी का फोन आया था कि कभी भी आ सकते हैं ।“ लक्ष्मीनारायण जी ने अपनी नब्ज टटोली, घबराहट सी हो रही है । ऐसा कोई दिन नहीं जा रहा है जब छापों की खबर नहीं छप रही हो । सोच रहे हैं अच्छा होता बैंक का लोन ले लेते,भाग जाते मजे में और मुंह नहीं दिखाते कभी । ज़माने भर के टेक्स देने के बाद भी रातदिन छापों का डर । चोर चैन की नींद सो लेते हैं लेकिन एक व्यापारी होना गुनाह हो गया है । बोले – “क्या करें बावरिया सेठ, भूख लगाना बंद हो गयी है । जरा झपकी लगे तो बुरे बुरे सपने आते हैं ।“

“फोन आ गया तो इतना घबराने की जरुरत नहीं है । चुनाव का समय है सबको देना पड़ता है । भई मैं तो सबको दे देता  हूँ ।“

“क्या दे देते हो !! कायकी बात कर रहे हो ?!” लक्ष्मीनारायण ने चौंकते हुए पूछा ।

“चंदा ... चंदा दे देता हूँ । ... हाँ फोन आया है तो हो सकता है कि बड़ी रकम मांगें आपसे । माहौल देखो ना ... अभी से मचमच शुरू हो गयी है । लगता है एक हप्ते बाद ही मतदान होने वाला है ।“

“चंदा तो मैं भी निकाल के अलग रख देता हूँ रोज ।“

“रोज !! ... रोज क्यों ?!” इस बार बावरिया चौंके ।

“परिवार की परंपरा है जी । खाना बनता है तो गाय और कुत्ते की रोटी भी निकाल देते हैं हम लोग । कोई न कोई  चंदा तो देते ही रहना पड़ता है । भजन, भंडारे, कथा, रैली, स्वागत, धरना, प्रदर्शन, जनमदिन, दान धरम  वगैरह कितने तो मौके हैं जो साल भर लगे रहते हैं । रोज रोज निकाल दो तो भार नहीं पड़ता है ।“

“सही कह रहे हो आप । छोटी छोटी पार्टियाँ, निर्दलीय भी अब बिना लिए नहीं टलते हैं । किन्नरों की तरह अड़ जाते हैं ।“

“इसीलिए तो ... दे देना चाहिए । मैं तो थोड़ा बहुत सबको दे देता हूँ । लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए कुछ तो देना पड़ेगा ना । राजतन्त्र हो तो मनमर्जी का लूट ले जाएँ, क्या कर लोगे ।“

“चालाक इतने हैं कि हमसे चंदा मांगते हैं वोट नहीं ।“

“वो जानते हैं कि जिसके पास जो है उससे वो ले लो । दबाव डाल के हमसे चंदा ले सकते हैं वोट कैसे लेंगे ! अगर उन्हें वोट दे देवें तो इसका मतलब हुआ कि हम चंदे का भी समर्थन करते हैं । ये कैसे हो सकता है ! चंदा लेलो, बाकि जे राम जी की ।“

“ठीक कहते हो । अगर चंदा नहीं लें तो हो सकता है कि अपन वोट देने के बारे में सोचें । वैसे वो जानते हैं कि चंदा देने वाले मतदान के दिन घर से नहीं निकलते हैं, दाल-बाफले-लड्डू खा कर पड़े रहते हैं । “

“सही बात तो ये है कि हमारे चंदे से वो कई वोट खरीद लेते हैं । तो हमारे चार वोट से उनको क्या फर्क पड़ता है ! टेढ़ी उंगली से घी निकल सकता है वोट नहीं । अगर सारे व्यापारी कारोबारी एकजुट हो कर चंदा देना बंद कर दे तो ..... “

“तो छापे ... और क्या ?“

“हाँ ... मैं तो भूल गया था । ... घबराहट होने लगती है ।“ लक्ष्मीनारायण ने फिर नब्ज पर हाथ रखा ।

“बड़ी देर हो गयी ! डाक्टर साब के चेंबर से कोई निकला नहीं ! किसे देख रहे हैं पता करो ।“

लक्ष्मीनारायण ने रिसेप्शन पर जा कर पूछा –“ किसे देख रहे हैं डाक्साब ... बड़ी देर से केबिन खुला नहीं !?”

“वेट कीजिये, देर लग सकती है ... अन्दर छापा चल रहा है ।“

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