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अच्छाई हुआ टिकिट नी मिला अपुन को

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    “ देखो यार ऐसा है कि अपुन टिकिट के वास्ते राजनीति करते-ई नी हें । मेरा तो मन-ई नी था । मेने तो मांगा-ई नी था किसी से । वो तो तुम लोग बोले तो सोचा चलो ठीक हे । आपना क्या हे  ,  आपन तो फकीर आदमी हें । झोला उठा के चल देंगे कंई भी । “ गुलाब सिंग उर्फ गब्बू भिया घर में उदास बैठे हैं । इस बार उम्मीद थी कि मिलेगा । ज़ोर भी खूब लगाया था । लेकिन जिस साँड की दुम पकड़ कर वैतरणी पार कर रहे थे उसी ने मँझधार में लात मार दी । अब बीच धार में कोई दूसरा साँड तो मिलने से रहा । पट्ठे भी उदास थे ,  एक बोला –“ गब्बू भिया आपकी कसम ,  देख लेना अबकी बार अपन साँड के लिए काम नी करेंगे । बड़ा चुनाव तो उसीको लड़ना हे । उसके झंडे-डंडे कोन उठता हे .... अपन-ई उठाते हें ना गधे कि तरे ! अबकी उसको पता चल जाएगा कि कार-करता क्या चीज होता हे । “ “ अरे ठीक हे रे कानिया । तू लोड मत ले । अपने को कायकी कमी हे । अच्छाई हुआ टिकिट नी मिला ,  मिल जाता तो लोगों के पाऊँ छू छू के कमर दो दिन में तीन तलाक बोल देती । यूं समझ ले कि टिकिट नी मिला तो इज्जत बच गई । इज्जत टिकिट से बड़ी चीज होती हे बेटा । “ पता नहीं गब्बू भिया ने अपने

एक भगवान आसमान में और एक हमारे पास है !

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  भगवान होना आसान है इन्सान होने में बड़ी दिक्कत है । ये भी भगवान हैं ताजे ताजे, गार्डन फ्रेश । वैसे कई नाम से जाने जाते हैं । कुछ के लिए बाबा हैं, कुछ के लिए महाराज, कोई पंडीजी बोलता है तो कोई बापू । सियासी गलियारों में भगवान संबोधित हैं । दिन में आम जनता से मिलते हैं और रात में सियासतबाजों से । जिल्ले-सुभानी रात बारह बजे के बाद पहुंचे हैं । भगवान की आवाज खनक रही है -   “फितरत इन्सान की, खेल मुकद्दर का । नहीं मिलना हो तो कुँवा खोदते जाओ पत्थर के सिवा कुछ नहीं मिलेगा । मिलना हो तो बंदा हाथ उठा के मांग ले और बादल बरस जाएँ । मालिक महरबान तो मुर्दा पहलवान । मेहनत करो, करते रहो, तुम्हारे पास मेहनत के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं । देना नहीं देना ऊपर वाले के हाथ में है । औलाद नहीं तो औलाद देता है । रुतबा नहीं तो रुतबा देता है । कुर्सी चाहोगे कुर्सी भी मिलेगी । कुर्सी का मौसम है और तुमको पता है कि ये मौसम बड़ा बेईमान है । जब नेता किसी का सगा नहीं तो वोटर सगा कैसे हो सकता है ! लेकिन चिंता नहीं, वशीकरण कोई कर सकता है तो एक ही नाम है इस धरती पर ... हमारा । बाबा के दरबार में हजारी लगाओ और अपना खु

भंकस मारता है खालीपीली

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  हरिभाऊ खड़ीकर ताजा अख़बार हाथ में लिए सीधे बाबूराव हड़के के घर पहुंचे । लाख मेसेज बाजार में घूम रहे हैं कि दोस्त आपसी राजनितिक बहसों से बचें लेकिन दिल में जब तूफान उठे तो कोई क्या कर सकता हैं ! सामने पड़ते ही बोले -   “कोई बात तो हो कायदे की, चुनाव हैं तो कायदे से मुद्दे हों जनता के बीच । पार्टियों के काम हों, सोच और विचारधारा हो । किया धरा सामने रख कर बहसें हों । लेकिन ये क्या बोलियाँ लग रहीं हैं बढ़ चढ़ कर ! मानों लोकतंत्र नीलामी पर चढ़ा है । कहते हैं पर्व है लोकतंत्र का और हर जगह चीरहरण दिखायी देता है ! माना कि ज्ञानियों ने कहा है कि मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है । हर चीज की कीमत चुकाना पड़ती है । लेकिन बता दो नेताओं को कि ज्ञानियों का मतलब वोट से कतई नहीं था । जब आस लगी घटने तो रेवड़ियाँ लगी बंटने । गलत बात है ये, एक गलत प्रवृत्ति है । “ “अरे इसमें मैं क्या करूँ खड़ीकर साहेब, मैंने थोड़ी बोला है नेतों को कि ऐसा बोलो करके । कायको झमेला करते तुम ! देने वाला राजी, लेने वाला राजी तो अपुन को कायको राड़ा करने का ! देने वाला खुद जानता है कि लेने वाला वोट दे देगा इसकी कोई गारंटी नहीं है फिर भी देता

जो मांगोगे वो नहीं मिलेगा

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  आचार संहिता लग गयी है तो पूरा सम्मान करेंगे हम उसका । कानून का भी करते हैं । लेकिन सम्मान करना अलग बात है और पालन करना अलग । आप चिंता नहीं करें बंद रास्तों में भी गलियां होती हैं । आप जो मांगोगे मिलेगा । जो नहीं मांगोगे वो भी मिलेगा । बेचारगी सिर्फ जनता की नहीं होती है । चुनाव सर पर हों तो सरकार की भी होती है, चाहे कुर्सी पर बैठी हो या कुर्सी पर बैठने वाली हो । पजामा फाड़ कर रुमाल बांटना पड़ते हैं तो आत्मा जान जाती है । वो तो अच्छा है की राजनीति में आत्मा नाम की चीज कोमा में होती है । लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है । मिल जाए कुर्सी तो पजामों की क्या कमी है । मन में आयेगा उसका उतरा लेंगे । राज की बात बताएं, आज बांटे रुमाल कल कालीन बनेंगे । आज जिन गदहों को बाप बनाना पड़  रहा है  कल उन्हीं गधों पर लदाई भी होगी । आप समझे कि नहीं ? चुनाव जो है किसी राजस्थानी ब्याव से कम नहीं है । एक एक वोटर बौराया बराती है ससुरा । जनवासे में नहीं बैठाएंगे, खिलायेंगे पिलायेंगे नहीं तो पगलाते देर नहीं लगेगी । बाद में चाहे मुंह फेर लो पर अभी तो मिलनी करना पड़ेगी और नेग भी देना पड़ेगा । “वो सब तो ठीक है, पर ला

मामा एक, चंदामामा अनेक

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  “तुम्हारे यहाँ भी आ गए क्या  ?”  डाक्टर के वेटिंग रूम में बैठे बावरिया सेठ ने लक्ष्मीनारायण जी से पूछा । “आए तो नहीं अब तक । लेकिन किसी का फोन आया था कि कभी भी आ सकते हैं ।“ लक्ष्मीनारायण जी ने अपनी नब्ज टटोली, घबराहट सी हो रही है । ऐसा कोई दिन नहीं जा रहा है जब छापों की खबर नहीं छप रही हो । सोच रहे हैं अच्छा होता बैंक का लोन ले लेते,भाग जाते मजे में और मुंह नहीं दिखाते कभी । ज़माने भर के टेक्स देने के बाद भी रातदिन छापों का डर । चोर चैन की नींद सो लेते हैं लेकिन एक व्यापारी होना गुनाह हो गया है । बोले – “क्या करें बावरिया सेठ, भूख लगाना बंद हो गयी है । जरा झपकी लगे तो बुरे बुरे सपने आते हैं ।“ “फोन आ गया तो इतना घबराने की जरुरत नहीं है । चुनाव का समय है सबको देना पड़ता है । भई मैं तो सबको दे देता   हूँ ।“ “क्या दे देते हो !! कायकी बात कर रहे हो ?!” लक्ष्मीनारायण ने चौंकते हुए पूछा । “चंदा ... चंदा दे देता हूँ । ... हाँ फोन आया है तो हो सकता है कि बड़ी रकम मांगें आपसे । माहौल देखो ना ... अभी से मचमच शुरू हो गयी है । लगता है एक हप्ते बाद ही मतदान होने वाला है ।“ “चंदा तो मैं

कार्यकर्त्ता उर्फ़ मुंहबोले गाँधी की व्यथा

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  “पार्टी वार्टी से हमको क्या लेना देना बाउजी । हम ठहरे कार्यकर्त्ता लोग, माहौल बनाते हैं । सीजन सीजन कर लेते हैं जिंदाबाद मुर्दाबाद । घर में मेरे दो ग्रेजुएट भाई भी खाली बैठे हैं । कहीं कोई काम नहीं है । ‘घर घर बैठे बेरोजगार मिलेंगे ; एक ढूँढो कार्यकर्त्ता हजार मिलेगे’ । एक तो ये दो पार्टी का खेल बेकार है । पांच सात पार्टी हों तो कार्यकर्त्तागिरी का काम निकले जरा । वो तो अच्छा है कि दीवाली का सीजन भी लग के आ रहा है । घर घर रंगाई पुताई का काम भी निकल सकता है ।“ वह बोला । “पिछली बार किसके यहाँ कार्यकर्त्ता बने थे ?” “मैं तो रंगा भिया के यहाँ लग गया था । भाई लोग बिल्ला भिया के कार्यकर्त्ता थे । दोनों ही पसंद नहीं थे पर दोनों का जिंदाबाद करते थे । वैसे किसीके जिंदाबाद कहने से कोई जिंदाबाद हो सकता है क्या ।   “ “नाम क्या है तुम्हारा ?” “वैसे नाम में क्या रखा है बाउजी । ... माँ बाप ने मोहनदास रखा था । लोग मजाक में गाँधी बोलने लगे तो वोई नाम पड़ गया   । मज़बूरी का नाम है बाउजी । शुरू शुरू में अच्छा लगता था पर अब डर लगता है ।“ उसने आसपास नजर डाली और पता नहीं किसको देखा । “अरे ! इसमे

सरकार अभी लेडिस-फर्स्ट पर काम कर रही है !

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  दुःख कभी कभी ख़ुशी का लबादा पहन कर भी आता है । मोहल्ले में जिन जिन भी घरों में लड़कियां हैं अचानक लाड़ली हो गयीं । जिनके यहाँ दो-तीन-चार हैं वो कल तक देनेवाले से कुपित थे आज कह रहे हैं भगवान के घर देर है अंधेर नहीं । दयाराम की घरवाली गंगाजली से देखा नहीं जा रहा है । कल तक सर उठा कर चल रही थी कि दो लड़के हैं नौकरी पा गए तो दहेज़ कूट लेगी । लेकिन दोनों बेरोजगार पिछले पांच साल से घर बैठे डाटा और आटा खुटा रहे हैं । पढ़ाया लिखाया लेकिन किसी काम नहीं आया । डिग्री भी असली है लेकिन कोई देखने पूछने वाला नहीं मिला आज तक । जहाँ भी नौकरी मांगने जाते हैं बेइज्जती हो जाती है ।  कितना तो समझाया कि नाले के किनारे जगह पड़ी है खाली, पकौड़े बेच लो मजे में । ज्यादा नहीं तो हप्ता पंद्रह दिन बेच लो । कल को किस्मत चमक गयी तो कहने को हो जायेगा कि बड़ा संघर्ष किया । गरीबी सफलता के ग्लेमर को बढ़ाती है । लेकिन नहीं सुनते, कहते हैं ठहरो अभी बेरोजगारी भत्ता मिलेगा, बैठ के खायेंगे मजे में । सरकार अभी लेडिस फर्स्ट पर काम कर रही है । वो संस्कार और परम्परा को निबाहने वाली है । उसे पता है कि एक भांजा सौ बामनों के बराबर होता

पटिये वाले कल्लू सरकार और हाड़कूटे भाऊ

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  पोपसिंग ने आते ही गमक कर बताया कि ‘भिया माहोल बन ग्या हे चुनाव का अपने यां पे । कल खलीपा के पटिये पे भेसबाजी चल री थी कि लाफड़े चल गए दनादन । बिचारे कल्लू पांडे जबरन लपेटे में आ गए ओर खोपड़ी फुड़ा बैठे । टांके तो नी आए पन खून भोत निकल ग्या । में तो पेलेई के रिया था कि मत करो रे माथाफोड़ी अपने को क्या । पन कोई सुने तब ना । कल्लू भिया को लग्ता हे कि जेसे रोज पीएम के साथ बेठ के चा पीते हें । ओर हाड़कूटे भाऊ को लगता हे कि कांग्रेस उनके खून में सर्राटे से भे री हे । अब बताओ दोनों में पटे तो केसे !“ शहर में कई जगह ऐसी हैं जहाँ शाम को अड्डेबाज़ जुटते हैं । बहसें होती हैं, शायरी भी । शहर में कहाँ क्या चल रहा है, किसकी तूती बोल रही है और किसकी बोलने वाली है सब पता चल जाता है । कभी कभी इश्किया माहौल में रंगीन किस्सों की बाढ़ आ जाती है तो रुकने का नाम ही नहीं लेती । चादर की एक एक सलवट पर पीएचडी कर डालते हैं पटिया यूनिवर्सिटी वाले । पोपसिंग धुरंधर अड्डेबाज है । खाए बिना रह सकता है अड्डे पर जाए बिना नहीं । उसका कोई एक अड्डा नहीं है । झील का पंछी है, सुबह से शाम तक कई अड्डों को तेल पानी देता है । क्र

बंसी पर विकास की धुन !

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  इतिहास के शुरुवाती पन्नों में दर्ज है कि जब रोम जल रहा था तब नीरो बंसी बजा रहा था । धराधीश ने सुना तो बोले इसमें आपत्तीजनक क्या है ! ? दुनिया में सब जगह इतिहासकार इसी तरह के होते हैं क्या ! अच्छे में बुरा देखने वाले ! रोम अगर जल रहा था तो उसमें नीरो क्या करे ! उसे बंसी बजाना आती थी तो बंसी ही बजाएगा ना ? हमारे यहाँ तानसेन गाना गा कर पानी बरसा देते थे । आप लोगों ने सुना होगा , मैंने तो देखा भी है । हाँ मैंने देखा है । उस जमाने में मैं अकबर के दरबार में ही था और जोधाबाई के मंदिर में पूजा करवाता था । ये तो ईश्वर क्रूपा है कि पिछले जन्मों की बहुत सारी बातें मुझे याद हैं । तानसेन ने कई बार पानी बरसाया और लोग भीग गए । क्योंकि तब छतरी नहीं होती थी , चायना ने भी नहीं बनाई थी । अगर नीरो बेचारा बंसी बजा कर पानी बरसने का काम कर रहा था तो बुरा कर रहा था क्या ? मैं आपसे से पूछता हूँ कि नीरो बुरा कर रहा था क्या ? पानी नहीं बरसा ये बात अलग है , लेकिन उसकी कोशिश में कोई कमी थी क्या ? क्या यह नहीं हो सकता है कि इसमें बादलों की गलती हो । हर कोई तानसेन हो भी नहीं सकता है । आगे किसी ने लिखा है

वोटर ईमानदार हो, नेता कैसा भी चलेगा

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  आदमी को पैदा होने के बाद अपने यहाँ वोटर बनाने में अठ्ठारह साल लग जाते हैं । वो समझता है कि बालिग हुआ अब शादी-वादी करेगा , व्यवस्था मानती है कि वोट हुआ अपने काम आयेगा । हर पाँच साल में , या यों कहें मौके मौके पर वोट को लगता है कि वही मालिक है मुल्क का । इस बात का असर इतना कि उसका माथा गरम और चाल टेढ़ी हो जाती है । आँखों में शाही डोरे से उतार आते हैं । कुछ डाक्टर इसे सीजनल बुखार बता कर गोलियां वगैरह देकर फारिग हो जाते हैं । लेकिन अनुभवी डाक्टर बकायदा टेस्ट आदि करवा कर वोटर की जान को और कीमती बनाते हैं । इधर लोकतंत्र के पक्के खिलाड़ी जानते हैं कि वोटों को भविष्य की चिंता सताती है इसलिए वोटिंग से पहले उसे पिलाना जरुरी होता है । इधर वोट बिना कुछ किए सुखी होना चाहते हैं , भले ही हफ्ता पंद्रह दिनों के लिए ही क्यों न हो । हालांकि सुख एक भ्रम है । लेकिन विद्वान यह भी कह गए हैं कि भ्रम ही है जिससे लोकतन्त्र को प्राणवायु मिलती है । इस सब के बीच अच्छी बात यह है कि वोटर भुलक्कड़ भी है । कल उसकी इज्जत से कौन खेल गया यह उसे याद नहीं रहता है । थोड़ा बहुत हो भी तो भूलाने के लिए प्रायः एक बोतल काफी ह

मुस्करा रहे हैं, जो काटते थे कभी

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  लोगों ने देखा कि आवारा कुत्ते की दुम कुछ दिनों से सीधी है ! पुराने लोग बताते हैं कि कुत्ते की दुम सीधी हो तो उसके पागल होने की आशंका प्रबल रहती है   ।   पागल कुत्ता काटने लगता है   ।   इरादतन काटे या गैरइरादतन, चौदह इंजेक्शन पूरे लगते हैं   ।   इसलिए पागल कुत्ता जब भी बस्ती में आता था तो लोग बच्चों को लेकर घरों में घुस जाते थे   ।   पागल कुत्ते के आने से लोगों को फ़ौरन घर में छुपाना एक रिहर्सल हो जाया करती थी जो डाकुओं के आने पर बड़े काम आती थी   ।   मुसीबत आये तो मुकाबला करने के बजाए छुप जाना हमारी नीतिगत प्राथमिकता है   ।   इस भागमभाग के दौरान कई बार बस्ती के वाशिन्दे-कुत्तों को पागल कुत्ते की गुस्ताखी का जवाब देने का विचार आता, सो वे अपनी पूरी ताकत से राजनैतिक धार्मिक नारों जैसा कुछ भौंकते हुए उसके पीछे दौड़ जाते थे और उसे सीमा पार खदेड़ कर ही दम लेते थे   ।   कभी कभी ऐसा भी होता था कि हिम्मत करके बस्ती के लोग डंडे लाठी लेकर निकल पड़ते, कुछ लोग पत्थर ले कर पागल कुत्ते को घेर लेते और दिन दहाड़े उसका खत्मा कर डालते   ।   कई दिनों तक इसकी चर्चा चलती, कोई इसे मॉबलीचिंग कहता तो कोई एनकाउंट